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कविता

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प्रांजल धर


मैं कहता हूँ
कि क्या बदल जाएगा?
आखिर क्या बदल जाएगा
तुम्हारे जानने से
कि मेरी वेदना यह है,
मेरी पीड़ा यह है,
या फिर मेरा भोगा हुआ यथार्थ यह है?
क्या इससे कुछ फर्क पड़ेगा!
कोई दीपक मेरे हृदय के अँधेरे में जलेगा!
या एक बार फिर
अपनी प्रामाणिकता खोने का विचार
एक नए सिरे से चलेगा!
तुम्हारे ‘इंटिमेसी’ से ग्रस्त हो गया हूँ।
और अपने कल्पित संत्रास में खो गया हूँ।
गलत लगता है तुम्हें कि
मनोविश्लेषणवादी मैं हो गया हूँ।
मेरे हृदय के दोनों उजड़े पाट
किसी सूने जंगल की तरह हैं
जहाँ कोई चमचमाती कार नहीं दौड़ा करती,
जिस पर एक लाल या नीली बत्ती लगी हो
जो लक-लक-लक-लक करती हो,
और आम जनता की मासूमियत को,
सरलता से ‘कैश’ करती हो।
खैर!
ये बेइमानियाँ और बेईमान
बेइमानी की खिड़की से झाँकता
रेशमी ईमान...
बड़ी उबकाई महसूस होती है,
क्या था, क्या हो गया है जीवन,
पूँजी से घिरा हुआ, दबा-सा कोमल मन
व्हाट्ज़ लाइफ?
‘ऑबियसली, अ मीनिंगलेस पैशन’
एक अर्थहीन उत्तेजना,
जिसमें एक धुँधला-सा
गड़बड़ अतीत है, और कहने-सुनने के लिए
अपने पास एक टुटपुँजिहा गीत है।
अस्तित्व ही बेमानी है
एक ‘इम्पॉसिबिलिटी’ है,
और वर्तमान की ‘खंडित’
और बिखरी-सी अनुभूति है।
 

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